जीवन संवाद: मन की चोट और स्नेह

एक-दूसरे को छोड़कर, एक-दूसरे से कटकर हम सुखी, आनंदित नहीं रह सकते. अंतत: हमें एक-दूसरे से जुड़ना ही होगा. जिंदगी की यही रीत है. हम इस रीत से अलग रिवाज बनाने निकल पड़े हैं हम स्‍वाभाविक रूप से प्रेम, स्‍नेह में डूबे रहने वाले संतोषी समाज रहे हैं. हमने बहुत कम सुविधा, साधन के बीच गहरे अनुराग को देखा है. समझा, जाना है. हम आनंद में रहने वाले लोग थे. हमारे पास क्‍या है, इससे अधिक हम आगे की आशा के प्रति निष्‍ठावान रहे हैं. इसलिए संतोष हमारे मन, चेतना का बड़ा अनुरागी भाव रहा है. इनमें कुछ नया नहीं है. यह तो बरसों से चला आ रहा सिलसिला है. बस हुआ केवल इतना है कि हम इससे दूर हो गए हैं. हम तुलना के भंवर में उलझ गए हैं. हम तुलना पहले भी खूब करते थे. लेकिन बाजार, टेलीविजन का असर हमारे ऊपर इतना अधिक नहीं था. हम केवल इसी चिंता में नहीं डूबे रहते थे कि हमारे आसपास लोग हमसे तेजी से आगे निकलते जा रहे हैं.अरे! देखो हमारे पास वही पुराना फर्नीचर है. वही कपड़े, कार और घर है. लोग कहां से कहां चले गए. हम तो वहीं रह गए. हमें भी कुछ तो सोचना चाहिए. हमारा बच्‍चा दूसरों के मुकाबले कितना पीछे है. उनके बच्चे के स्‍कूल की फीस सालाना दो लाख रुपए है. वह तो हमसे कितना कम कमाते हैं, लेकिन बच्‍चों के लिए कितना कुछ कर रहे हैं. हमें भी तो कुछ करना चाहिए. नहीं तो हमारे बच्‍चे पीछे ही रह जाएंगे. हमारा क्‍या होगा. हम दूसरों की तरह कब दुनिया की सैर पर जाएंगे. दुनिया तो छोड़ो, केरल तक नहीं गए हैं. जबकि अपने पड़ोसी शर्मा/वर्मा/खन्‍ना/खान साहब जाने कहां-कहां जाते रहते हैं
आखिर हम कब दूसरों की तरह आनंद से जी पाएंगे!कितनी मजेदार बात है! दूसरों की तरह आनंद से जीने की चाह. हम अपनी तरह जीना भी नहीं चाहते. तुलना के भंवर मन की खुशबू, ताजगी को डुबोए जा रहे हैं.अरे, कम से कम मन के आनंद को तो मौलिक रहने दीजिए. अपने तरीके से खुश होना तो बंद मत कीजिए. हमारे मन का यह सबसे निजी कोना है. इसे तो अपने से दूर मत कीजिए. अपने आनंद, खुशी के लिए बच्‍चे के परीक्षा परिणाम, पड़ोसी की यात्रा, उसकी तरक्‍की को आधार मत बनाइए.अपनी जिंदगी को दूसरों के नजरिए से जब तक देखना बंद नहीं करेंगे, हम उसकी खूशबू, अपनी खासियत और गुणों को कभी नहीं समझ पाएंगे. हमारे होने को जब तक हम नहीं समझेंगे. बात नहीं बनने वाली.जिंदगी का रोशनदान मन की ओर ही खुलता है. उस ओर दीवार खड़ी कर देने से जिंदगी उस ताजगी, आनंद से हमेशा के लिए दूर हो जाएगी. जिसकी उसे सबसे अधिक जरूरत है.इसलिए, जितना संभव हो, अपने मन और उन सभी के मन जिनकी चिंता आपको है, उनको तुलना के भंवर में फंसने से बचाना है. मन की सारी शक्ति को अपने पर केंद्रित कीजिए. आप क्‍या कर सकते हैं. इस पर शक्ति केंद्रि‍त कीजिए. दूसरों की ओर दौड़ने से मन केवल थकता है. हांफता है. निराश होता है.जिस तरह दूसरे के भोजन करने से आपकी भूख नहीं मिटती. केवल संतोष मिलता है. ठीक उसी तरह जिंदगी का असली रस तभी आत्‍मा तक पहुंचता है, जब आप उसे उसका असली भोजन देते हैं. असली भोजन के मायने हुए अपने मन का काम. भीतर की उस इच्‍छा तक पहुंचना जो आपकी अपनी है. बहुत सरल नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है. इससे ही आप अपने मन, चेतना को सही अर्थ में वह भोजन दे पाएंगे, जिसकी आपको दरकार है.इससे संतोष के साथ आत्‍मा को वह सुख भी मिलेगा, जिसके कारण हम जिंदगी के सुख, आनंद और सरलता से दूर हुए.


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